Last updated on May 22nd, 2021 at 06:39 am
इस कविता को पढ़ने से पहले इसका परिदृश्य समझाना चाहूंगा। यह कविता मैंने स्थानीय परिदृश्य में चल रही कई प्रकार की गतिविधियों को देख समझकर लिखी है। कोरोना के चलते कई चीज़ों पर असर पड़ा है। ग्रामीण इलाकों में अगर देखा जाये तो कुछ चीज़ों जैसे बीड़ी तम्बाकू गुटखा, इन सब के चक्कर में आदमी कई कई मील चक्कर मार आता है। तो बस ऐसे ही कुछ छोटे छोटे अनुभवों की कड़ी है यह कविता।
कहीं से भी लाओ कर दो जुगाड़
तम्बाकू बिना आ रहा है बुखार
सूना लिए मुंह कहो कैसे बैठें
गुटखा भी बंद हैं गायब सिगरेटें
बीड़ी बाज़ारों से हो गयी फरार
कहीं से भी लाओ कर दो जुगाड़
तम्बाकू बिना आ रहा है बुखार
एक तो पुलिस लट्ठ लेकर खड़ी है
ऊपर से धंधे पे मंदी पड़ी है
किश्तों में ही खुल रहा है बाजार
कहीं से भी लाओ कर दो जुगाड़
तम्बाकू बिना आ रहा है बुखार
खाने की किल्लत बनाने की किल्लत
बिना बात घर बाहर जाने की किल्लत
कहीं भी नहीं मिल रहा कुछ उधार
कहीं से भी लाओ कर दो जुगाड़
तम्बाकू बिना आ रहा है बुखार
कभी छत पे बैठें या झांके गली में
घर पर फँसे हैं सभी खलबली में
बचे कोरोना से पर हो गए बीमार
कहीं से भी लाओ कर दो जुगाड़
तम्बाकू बिना आ रहा है बुखार
©पराग पल्लव सिंह
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