हमारे गाँवों के बदलते हुए रूप पर एक हिंदी कविता
A Hindi Poem on the changing faces of our villages
कच्चे घर हो गए पक्के न डालै कोई मढ़ाई
गाँव बदल रहे भाई अपने गाँव बदल रहे भाई
दही दूध न भाता इनको
भाता अद्धा पौना बोतल
खाते न अब चुपड़ी रोटी
मदिरा करती रिश्ते ओझल
राजनीति फैली गावों में
रामनीति की बात कहाँ
नव पीढ़ी के नौजवान
और बालक जोड़ें हाथ कहाँ
धो धो कर पापों को मैली हो गई गंगा माई
गाँव बदल रहे भाई अपने गाँव बदल रहे भाई
आंगन और चौपाल खो गए
खोए बौर आम के पीले
फाल्गुन के वो गीत खो गए
सावन के वो बादल नीले
हैप्पी न्यू ईयर होता अब
चैत्र मास को भूल गए
रिश्ते हैं अब दूरभाष पर
आना जाना भूल गए
नवीकरण के दीप तले पड़ गई काली परछाई
गाँव बदल रहे भाई अपने गाँव बदल रहे भाई

बूढ़े बैठे कोनों में अब
कौन ज्ञान का पाठ पढ़ाए
कौन सिखाए सद्गुण सुत को
दुनियादारी कौन सिखाए
दुनियादारी में फँसकर फिर
भूखा वह व्याकुल हो जाए
जिए पेट की खातिर फिर वो
और उसी खातिर मर जाए
पाकर शोहरत कागज़ की आधी जनता बौराई
गाँव बदल रहे भाई अपने गाँव बदल रहे भाई
रहे न पनघट कुए बावली
और रहे न मटका पारे
ग्वालों की मीठी बातों को
मेरे हृदय से कौन उतारे
भूल गए सब नाटक लीला
खेल खिलौना कृष्ण तुम्हारे
बृज की गोपी को समझाएं
इस युग में ऊधौ बेचारे
अपने कर्मों की तुमको अब करनी है भरपाई
गाँव बदल गए भाई अपने गाँव बदल गए भाई
नदिया बंबा नेहरें पोखर
सूख रहे अब धीरे धीरे
कैसे कृष्ण बजाएं बंसी
बोलो कौन नदी के तीरे
राधा नाचें कौन वनों में
सारे उपवन झार दिए
जगह कौन अब फूल चुने वो
सारे बाग उजाड़ दिए
बन बैठे आदर्श गाँव पर खो बैठे सच्चाई
गाँव बदल गए भाई मेरे गाँव बदल गए भाई।
नवीकरण के दीप तले पड़ गई काली परछाई – वाह ! बहुत खूब
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Bahut bahut dhanyawad behen
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Behen 🙂
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Galati sudhar li gayi hai.
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Ha ha ha
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