
हिलते हुए पेड़
फड़फड़ाती हुई टहनियाँ
सन्नाटे को चीरती हुई
एक सायं सायं की आवाज
अचानक से
ज़ोर पकड़ने लगी
लगा हुआ दरवाजा
धड़ाम से बंद हुआ और
दूर कहीं पपीहे
कुहू कुहू करने लगे
कि तभी
एक उड़ती हुई कुर्सी
आंगन में आकर गिरी
मुझे ज़रा भी
आश्चर्य न हुआ
एक अदृश्य सी शक्ति का अद्भुत सा एहसास…
मानो कि कोई भयंकर आँधी अपना रूप ले रही हो…
राहगीरों की रफ्तार
अचानक से तेज़ हो गई
ठेले वाले अपना अपना
सामान ढकने लगे
अफरा तफरी भी
कुछ बढ़ने लगी थी
इसी बीच गली के
कुछ आवारा महाशय
ज़ोर से भोंकने लगे
जैसे भगवान से ही
सारी आफतों का
हिसाब ले रहे हैं
गर्मी से परेशान लोग
छतों पर दिखने लगे
धूल के गुबार और ज्यादा
डरावने हो गए थे पर
उनके अंदर ज़रा भी
डर या कंपन नहीं था
मोहल्ले के कोने में
बनी एक खाली टपरी
में खड़ा हुआ मैं
सारी गहमा गहमी
देख समझ रहा था
अचानक मेरी नज़र
वहाँ ठहर सी गयी
एक नवनिर्मित घर
की दूसरी मंजिल की
खिड़की से एक गुमसुम
और शांत सी लड़की
ये सब देख रही थी
उसे देखकर भी किसी
अनहोनी का एहसास सा जग रहा था मानो
उसके अंदर भी कोई भयंकर आँधी अपना…
वो कुहू कुहू उसे
गाँव- बगीचों तक
खींच ले गयी
राहगीरों को देख
उसे सूनेपन पर
बार बार गुस्सा आता
वो धुंध के गुबार
याद दिलाते उसे
एक आग की जिसमें
से उसके अब्बू और
शर्मा चाचा उसे बचाते हुए
कभी वापस न आये
ये आँधी उन दंगों की
याद दिलाती जिसमें
उसने अपना बचपन
अपना परिवार खोया
और ला पटका इस
तीन मंजिला इमारत में
जब भी कोई आँधी
आती है तो ये लड़की
यूँही सहम सी जाती है
और इंतज़ार करती है
बादलों का, बारिश का
जिसकी नम बूंदों में
वो अपने आँसू खुलके
बहा सके और अपने
अंदर के बवंडर को
शांत कर सके
खैर इतना सब होते होते
आँधी के ज़ोर को बारिश ने काबू किया
शायद अब उसका मन कुछ हल्का हुआ हो
मुझे भी राहत मिली और अब शायद तुम्हें भी..
पराग पल्लव सिंह